ग़ज़ल

किसी को घर मिला हिस्से में, या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई॥

ऐ अँधेरे देख मुह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी, घर में उजाला हो गया॥

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
एक मेरी माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती॥

इसके अलावा --

मिटटी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता
अब इससे जियादा मैं तेरा हो नहीं सकता
किसी शक्स ने रख दी हैं तेरे दर पे आँखें
इससे रोशन तो कोई और दिया हो नहीं सकता॥

कहने की ये बात नहीं है लेकिन कहना पड़ता है
एक तुझसे मिलने की खातिर सबसे मिलना पड़ता है
माँ बाप की बूढी आँखों में एक फिक्र सी छाई रहती है
जिस कम्बल में सब सोते थे अब वह भी छोटा पड़ता है॥

ऐसा लगता है की अब कर देगा आज़ाद मुझे
मेरी मर्ज़ी से उड़ाने लगा सय्याद (शिकारी) मुझे
मैं समझता हूँ इसमें कोई कमजोरी है
जिस शेर पे मिलने लगे गर दाद मुझे॥

उनके हाथों से मेरे हक में दुआ निकली है
जब मर्ज़ फ़ैल गया है तो दावा निकली है
एक ही झटके में वो हो गयी टुकड़े टुकड़े
कितनी कमज़ोर वफ़ा की ज़ंजीर निकली है॥

मेरी अनाह(अहंकार) का कद ज़रा ऊँचा निकल गया
जो भी लिबास पहना वो छोटा निकल गया
वो सुबह सुबह आये मेरा हाल पूछने
कल रात वाला खाब तो सच्चा निकल गया
वो डबडबाई आँखों से आये हैं देखने
इस बार तो करेला भी मीठा निकल गया
शायद वफ़ा नहीं है हमारे नसीब में
इस ओधनी का रंग भी कच्चा निकल गया॥

दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर तुलसी की चौपाई की तरह
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह॥

शायर
मुन्नवर राणा साहब


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खूबसूरत हैं आँखें तेरी रात को जागना छोड़ दे
खुद ब खुद नींद आ जायेगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे॥

और दूसरा तो अद्भुत है इंकलाबी शेर

कोई बच्चा तड़पता है तो माँ का दम निकलता है
मगर जब माँ तड़पती है तो फिर जम जम निकलता है॥

शायर
हसन काज़मी


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तेरी खातिर
हवा की बददिमागी से मैं वाकिफ हूँ मगर फिर भी
हथेली पे चरागे जिंदगानी ले के आया हूँ
जहां वालों तुम्हारे वास्ते मैं तपते सेहरा में
रगड़ के एडियाँ अपनी ये पानी लेके आया हूँ ॥

शायर
श्रवण कुमार उज्जैनी




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फिर उसी रहगुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकेँ, मगर शायद

जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर, शायद

मुन्तज़िर जिन के हम रहे उन को
मिल गये और हम-सफ़र शायद

जो भी बिछ्डे हैँ कब मिले हैँ फ़राज़
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

अहमद फ़राज़


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पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफा के मुझे
जिसे क़रार ना आया कहीं भुला के मुझे

जूदाईयाँ हों तो ऐसी की उम्र भर ना मिले
फरेब तो दो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे

मैं खुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गये आईना दिखा के मुझे

--अहमद फराज़


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ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे

दिल धड़कता नहीं सुलगता है
वो जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

लबकुशा हूँ तो इस यक़ीन के साथ
क़त्ल होने का हौसला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

कौन जाने के चाहतों में 'फ़राज़'
क्या गँवाया है क्या मिला है मुझे

--अहमद फ़राज़


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कुछ तो फ़राज़ हमने पलटने मे देर की
कुछ उसने इन्तज़ार ज़्यादा नहीं किया

--अहमद फ़राज़


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