3 Oct 2012

खामोश लम्हे..1













 






एक इंसान जिसने  नैतिकता की  झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर  उस संताप  को  गले मे डाले, रिस्तों का  फर्ज निभाता चला गया । कभी माँ-बाप  का  वात्सल्य, कभी पत्नी  का प्यार  तो कभी
बच्चो  की ममता  उसके पैरों मे  बेड़ियाँ बने  रहे। मगर
इन सबके  बावजूद वो  उसे कभी  ना भुला
सका जो  उसके  दिल के  किसी  
कोने  मे सिसक  रही  थी।
वक़्त  उसकी झोली  
मे  वियोग की
तड़प
भरता
रहा……

 
 

कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू  थूका है  घरदारी बचाने में
-    मुन्नवर राणा




( मैंने अपना ये लघु उपन्यास मशहूर शायर मुन्नवर राणा साहब के इस शेर से प्रभावित होकर लिखा है । जहां एक इंसान अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहण करते करते अपने पहले प्यार को अतीत की गहराइयों मे विलीन होते देखता रहा। मगर उम्र के ढलती सांझ मेन जाकर जब जिम्मेदारियों से हल्की सी निजात मिली तो दौड़ पड़ा उसे अतीत के अंधकूप से बाहर निकालने को.... 
 
विक्रम
(WebSite: www.guglwa.com)




रात अपने पूरे यौवन पर थी। त्रिवेणी एक्सप्रेस अपने गंतव्य को छूने सरपट दौड़ रही थी। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ पे गहरी नींद मे सोये हुये थे मगर एक अधेड़ उम्र शख्स की आंखो मे नींद का नामोनिशान तक नहीं था। चेहरे पर उम्र ने अपने निशान बना दिये थे। जीवन मे लगभग पचपन से ज्यादा बसंत देख चुका निढाल सा अपनी बर्थ पे बैठा ट्रेन की खिड़की से बाहर फैली चाँदनी रात को देख रहा था। जहां दूर दूर तक फैला सन्नाटा इंजन के शोर से तिलमिला कर कुलबुला रहा था। आसमान मे चाँद तारे अपनी हल्की थपकियों से अल्हड़ चाँदनी को लोरियाँ दे रहे थे, जो अंधेरे को अपने आगोश मे ले बेपरवाह सी लेटी हुई थी। कभी-कभी कहीं दूर किसी बिजली के बल्ब की हल्की रोशनी पेड़ों के झुरमुटों से नजर आती थी। उसकी आंखे दूर तक फैली चाँदनी के उस पार अपने अतीत को तलाश रही थी जो वक़्त के लंबे अंतराल मे कहीं दफ़न हो चुका था। वह बार बार अतीत के उन आधे अधूरे दृश्यों को जोड़कर एक सिलसिलेवार श्रींखला बनाने की कोशिश करता मगर वक़्त के बहुत से हिस्से अपना वजूद खो चुके थे। इसी उधेड़बुन मेँ न जाने कब उसके थक चुके मस्तिष्क को नींद ने अपने आगोश मे ले बाहर पसरी चाँदनी से प्रतिस्पर्धा शुरू करदी। ट्रेन लोगों को उनकी मंजिल तक पहुँचाने के लिए बेरहमी से पटरियों का सीना रोंदती बेतहाशा भाग रही थी।
 
बीस वर्षीय भानु अपने बड़े भाई के साथ अपने कॉलेज दाखिले के लिए अनुपगढ़ आया था। पहली बार गाँव से शहर मे पढ़ने आया भानु शहर की चहल-पहल से बहुत प्रभावित हुआ । भानु के बड़े भाई का अनुपगढ़ मे तबादला हो गया था तो उन्होने भानु को भी अपने पास पढ़ने बुला लिया । बारहवीं तक गाँव मे पढ़ा भानु आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया था । हालांकि उसके भाई को सरकारी आवास मिला था मगर वह भानु के कॉलेज से काफी दूर होने के कारण, उसके बड़े भाई विजय ने उसके कॉलेज से मात्र एक किलोमीटर दूर रेलवे कॉलोनी मे, अपने एक दोस्त के खाली पड़े क्वार्टर मे उसके रहने का प्रबंध कर दिया था । दूर तक फैले रेलवे के दो मंज़िला अपार्टमेंट्स में करीब सत्तर ब्लॉक थे और हर ब्लॉक मे आठ परिवार रह सकते थे। जिसमे चार ग्राउंडफ्लोर पे पाक्तिबद्ध बने थे और चार पहली मंजिल पे, जिनके दरवाजे सीढ़ियों में एक दूसरे के आमने सामने खुलते थे । पहली मंजिल मे दो बैडरूम का मकान उस अकेले के लिए काफी बड़ा था। पहले दिन भानु ने पूरे मकान का जायजा लिया , रसोई मे खाना बनाने के लिए जरूरी बर्तन, स्टोव और कोयले की अंगीठी तक का इंतजाम था। भानु अपने घर मे माँ के काम मे हाथ बंटाते बंटाते खाना बनाना सीख गया था। रसोई के आगे बरामदा और बरामदे के दूसरे सिरे और मुख्य दरवाजे के दायें तरफ स्नानघर था जिसके नल से टिप टिप टपकता पानी, टूट कर झूलता हुआ फव्वारा और कोनों मे जमी काई से चिपके कॉकरोच, उसे सरकारी होने का प्रमाणपत्र दे रहे थे।
 
एक पूरा दिन भानु को उस मकान को रहने लायक बनाने मे ही लगाना पड़ा। शाम को बाजार से दैनिक उपयोग की चीजें खरीद लाया। रात को देर तक सभी जरूरी काम निपटा कर सो गया। पहली रात अजनबी जगह नींद समय पे और ठीक से नहीं आती । अगली सुबह देर से उठा , हालांकि आज रविवार था , इसलिए कॉलेज की भी छुट्टी थी।
 
शयनकक्ष मे बनी खिड़की से सामने दूर दूर तक रेलवे लाइनों का जाल फैला हुआ था। आस पास के क्वार्ट्स मे रहने वाले बच्चे, रेलवे लाइन्स और अपार्टमेंट्स बीच सामने की तरफ बने पार्क मे खेल रहे थे जो भानु के अपार्टमेंट के ठीक सामने था। बच्चो के शोरगुल को सुनकर भानु की आँख खुल गई थी। अपार्टमेंट के दायें और बरगद का पुराना पेड़ बरसों से अपनी विशाल शाखाओं पर विभिन्न प्रजाति के अनेकों पक्षियों का आशियाना बनाए हुआ था। उसकी काली पड़ चुकी छाल उसके बुढ़ा होने की चुगली खा रही थी। बरसात के दिनों मे उसके चारों तरफ पानी भर जाता था , जिसमे कुछ आवारा पशु कभी कभार जल क्रीडा करने आ धमकते और उसी दौरान पेड़ के पक्षी उनकी पीठ पर सवार हो नौकायन का लुत्फ उठा लेते थे। पार्क मे कुछ बुजुर्ग भी टहल रहे थे। पूरी ज़िंदगी भाग-दौड़ मे गुजारने के बाद बुढ़ापे मे बीमारियाँ चैन से बैठने नहीं देती। मगर कॉलोनी की कुछ औरतें आराम से इकट्ठी बैठकर फुर्सत से बतिया रही थी। उनकी कानाफूसी से लगता था की वो कम से देश या समाज जैसे गंभीर मुद्दो पे तो बिलकुल बात नहीं कर रही थी। हफ्ते मे एक संडे ही तो मिलता है उनको, अगर उसे भी गंभीर मुद्दो मे जाया कर दिया तो फिर क्या फायदा। बीच बीच मे उनके बच्चे चीखते चिल्लाते उनके पास एक दूसरे की शिकायत लेकर आ जाते मगर वो उन्हे एक और धकिया कर फिर से अपनी कानाफूसी मे लग जाती। अपार्टमेंटों के आगे पीछे और मध्य बनी सडकों पे अखबार ,सब्जी, और दूधवाले अपनी रोज़मर्रा की भागदौड़ मे लगे थे।
 
 भानु ने दैनिक क्रियायों से निपट कर अपने लिए चाय बनाई और कप हाथ मे लिए रसोई और बाथरूम के मध्य बने बरामदे मे आकर खड़ा हो गया। बरामदे मे पीछे की तरफ लोहे की ग्रिल लगी थी जिसमे से पीछे का अपार्टमेंट पूरा नजर आता था। कोतूहलवश वो नजर आने वाले हर एक मकान के खिड़की दरवाजों से मकान मे रहने वालों को देख रहा था। एक दूसरे अपार्टमेंट्स के बीचो-बीच सड़क पे बच्चे खेल रहते थे। ये सड़के यातायात के लिए नही थी इन्हे सिर्फ अपार्टमेंट्स मे रहने वाले इस्तेमाल करते थे। भानु लिए ये सब नया था। ये मकान, शहर यहाँ के लोग सब कुछ नया था। उसका मकान ऊपर "ए" अपार्टमेंट मे था और ठीक उसके पीछे "बी" अपार्टमेंट था, उसके पीछे ‘सी’ और इस तरह दस अपार्टमेंट की एक शृंखला थी और फिर इसी तरह दाईं तरफ दस दस अपार्टमेंट की अन्य शृंखलाएँ थी। नए लोग नया शहर उसके लिए सबकुछ अजनबी था। बीस वर्षीय भानु आकर्षक कदकाठी का युवक था। उसके व्यक्तित्व से कतई आभास नहीं होता था की, ये एक ग्रामीण परिवेश मे पला-बढ़ा युवक है।
 
भानु चाय की चुसकियों के बीच जिज्ञासावश आस पास के नजारे देखने लगा। चाय खतम करने के बाद वो वहीं खड़ा रहा और सोचता रहा की कितना फर्क है गाँव और शहर की जीवन शैली में। गाँव मे हम हर एक इंसान को भलीभाँति जानते है, हर एक घर मे आना जाना रहता है। अपने घर से ज्यादा वक़्त तो गाँव मे घूमकर और गाँव के अन्य घरों मे गुजरता है। बहुत अपनापन है गाँव मे। इधर हर कोई अपने आप मे जी रहा है। यहाँ सब पक्षियों के भांति अपने अपने घोंसलों मे पड़े रहते हैं। किसी को किसी के सुख-दुख से कोई सरोकार नही। सामने के अपार्टमेंट मे बने मकानों की खुली खिड़कीयों और बालकोनी से घर मे रहने वाले लोग इधर उधर घुमते नजर आ रहे थे। अचानक भानु को अहसास हुआ की कोई बार बार उसकी तरफ देख रहा है, उसने इसे अपना भ्रम समझा और सिर को झटक कर दूसरी तरफ देखने लगा। थोड़े अंतराल के बाद उसका शक यकीन में बदल गया की दो आंखे अक्सर उसे रह रह कर देख रही हैं। उसने दो चार बार उड़ती सी नजर डालकर अपने विश्वास को मजबूत किया।
 
 
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खामोश लम्हे..2

कुछ देर पश्चात हिम्मत बटोर कर उसने इधर उधर से आश्वस्त होने के बाद  नजरें उन दो आंखो पे टीका दी जो काफी देर से उसे घूर  रही थी। बीब्लॉक मे दायें तरफ ग्राउंडफ्लोर के मकान के खुले दरवाजे के बीचोबीच, दोनों हाथ दरवाजे की दीवारों पर टिकाये एक लड़की रह रहकर उसकी तरफ देख रही थी। गौरा रंग, लंबा छरहरा बदन हल्के नारंगी रंग के सलवार सूट मे उसका रूप-लावण्य किसी को भी अपनी और आकर्षित करने की कूवत रखता था।

वह कुछ पल इधर उधर देखती और फिर किसी बहाने से भानु की तरफ बिना गर्दन को ऊपर उठाए देखने लगती जिस से उसकी बड़ी बड़ी आंखे और भी खूबसूरत नजर आने लगती। हालांकि दोनों के दरम्यान करीब तीस मीटर का फासला था मगर फिर भी एक दूसरे के चेहरे को आसानी से पढ़ सकते थे। भानु भी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद उसको देखता और फिर दूसरी तरफ देखने लगता। लगातार आंखे फाड़के किसी लड़की को घुरना उसके संस्कारों मे नहीं था। मगर एक तो उम्र  और फिर सामने अल्हड़ यौवन से भरपूर नवयौवना हो तो विवशतायेँ बढ़ जाती हैं। इस उम्र में आकर्षण होना सहज बात है। नजरों का  परस्पर मिलन बद्दस्तूर जारी था। मानव शरीर मे उम्र के इस दौर मे बनने वाले हार्मोन्स के कारण व्यवहार तक मे अविश्वसनीय बदलाव आते हैं।उसीका नतीजा था की दोनों धीरे धीरे एक दूसरे से  एक अंजान से आकर्षण से  नजरों से परखते लगे। दोनों दिल एक दूसरे मे अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे थे। भानु ने पहली बार किसी लड़की की तरफ इतनी देर और संजीदगी से देखा था। जीवन मे पहली बार ऐसे दौर से गुजरते दो युवा-दिल अपने अंदर के कौतूहल को दबाने की चेष्टा कर रहे थे। धडकनों मे अनायास हुई बढ़ोतरी से नसों में खून का बहाव कुछ तेज़ हो गया। दिल बेकाबू हो सीने से बाहर निकलने को मचल रहा था।  दिमाग और दिल मे अपने अपने वर्चस्व लड़ाई चल रही थी। अचानक बढ़ी इन हलचलों के लिए युवा दिलों का आकर्षण जिम्मेदार था। दोनों उम्र के एक खास दौर से गुजर रहे थे जिसमे एक दूसरे के प्रति खिंचाव उत्पन्न होना लाज़मी है।


मगर यकायक सबकुछ बदल गया। अचानक लड़की ने नाक सिकोडकर बुरा सा मुह बनाया और भानु को चिढ़ाकर घर के अंदर चली गई। भानु को जैसे किसी ने तमाचा मार दिया हो उसे एक पल को साँप सा सूंघ गया। हड्बड़ा कर वो तुरंत वहाँ से अलग हट गया और कमरे के अंदर जाकर  अपने बेकाबू होते दिल की धडकनों को काबू मे करने लगा। वो डर गया था, उसे अपनी हरकत मे गुस्सा आ रहा था। क्यों आज उसने ऐसी असभ्य हरकत की ? वो सोचने लगा अगर कहीं लड़की अपने घरवालों से उसकी शिकायत करदे तो क्या होगा ? अजनबी शहर मे उसे कोई जानता भी तो नहीं। उसके दिमाग मे अनेकों सवाल उठ रहे थे। वो सोचने लगा की अब क्या किया जाए जिस से इस गलती को सुधारा जा सके। अचानक दरवाजे पे हुई दस्तक से वो बौखला गया और उसके पूरे शरीर मे सिहरन सी दौड़ गई। उसने चौंक कर दरवाजे की तरफ देखा। कुछ देर सोचता रहा और  अंत में मन मे ढेरों संशय लिए धड़कते दिल से वो दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
दरवाजा खुला सामने एक वयक्ति हाथ मे एक लिफाफा लिए खड़ा था।
आप रमेश बाबू के परिचित हैं ?“ आगंतुक ने पूछा
जी...जी हाँ , कहिए भानु ने हकलाते हुये जवाब दिया । रमेश भानु के भाई विजय के दोस्त का नाम था जिसको रेलवे की तरफ से ये क्वार्टर आवंटित हुआ था।
उन्होने ये खत आपको देने के दिया था।उसने लिफाफा भानु की तरफ बढ़ा दिया।  
हम लोग भी यहीं रहते हैंआगंतुक ने सामने के दरवाजे की तरफ इशारा करते हुये कहा।
किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कह देनाआगंतुक ने कहा और सामने का दरवाजा खोलकर घर के अंदर चला गया  ।

भानु ने राहत की सांस ली, दरवाजा बंद किया और अंदर आकर खत पढ़ने लगा। खत मे बिजली पानी से संबन्धित जरूरी हिदायतों के सिवा सामने के मकान मे रहने वाले शर्माजी से किसी भी तरह की मदद के लिए मिलते रहने को लिखा था । रमेश का पिछले महीने कुछ दिनों के लिए पास के शहर मे ट्रान्सफर हो गया था । दिनभर  भानु उस लड़की के बारे मे सोच सोच कर बैचेन होता रहा , वह हर आहट पर चौक जाता।
 

 

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खामोश लम्हे..3


जैसे तैसे करके दिन बिता, भानु दिनभर उस खिड़की की तरफ जाते वक़्त अपने आप को छुपाता रहा और अगली दोपहर कॉलेज के लिए निकलने से पहले सहसा उसकी नजर पीछे के उस दरवाजे पे पड़ी । दरवाजा बंद देखकर उसने राहत की  सांस ली। मकान से उसके कॉलेज का रास्ता  कॉलेज का पहला दिन मात्र ओपचारिकताओं भरा रहा , पढ़ाई के नाम पे सिर्फ टाइम-टेबल मिला। उसके कॉलेज का समय दोपहर एक से पाँच बजे तक था। दिनभर रह रहकर उस लड़की का ख्याल भी उसकी बैचेनी बढ़ाता रहा।

शाम को मकान में आते ही उस लड़की का ख्याल उसे फिर बैचेन करने लगा। वो सोचता रहा की आखिर वो किस बात पे नाराज हो गई ? क्यों उसने उसकी तरफ बुरा सा मुह बनाया ? क्या उसे मेरा उसकी तरफ देखना अच्छा नहीं लगा ? मगर देख तो वो रही थी मुझे। रसोई मे आते जाते भानु उड़ती सी नजर उस दरवाजे पे भी डाल रहा था जो बंद पड़ा था । बिना किसी काम के रसोई मे चक्कर लगाते लगाते अचानक वह ठिठक कर रुक गया। दरवाजा खुला पड़ा था, मगर वहाँ कोई नहीं था। भानु की नजरे इधर उधर कुछ तलाशने लगी। सहमी सी नजरों से वो खुले दरवाजे को देख रहा था। फिर अचानक उसकी नजर दरवाजे के पास दाईं तरफ बने टीन की शैडनुमा झोंपड़ी पर गई जिसमे एक गाय बंधी थी, और वो  लड़की उस गाय का दूध निकाल रही थी। भानु कुछ देर देखता रहा। हालांकि लड़की की पीठ उसको तरफ थी, इसलिए वो थोड़ा निश्चिंत था। साथ साथ वो सामने के बाकी अपार्टमेंट की खिड्कियों पर उड़ती सी निगाह डालकर निश्चिंत होना चाह रहा था की कहीं कोई उसकी इस हरकत को देख तो नहीं रहा। चहुं और से निश्चिंतता का माहौल मिला तो नजरे फिर से उस लड़की पे जाकर ठहर गई जो अभी तक गाय का दूध निकालने मे व्यस्त थी। यकायक लड़की उठी और दूध का बरतन हाथ मे ले सिर झुकाये अपने दरवाजे की तरफ बढ़ी। भानु की नजरे उसके चेहरे पे जमी थी। वह सहमा सहमा उसे दरवाजे की तरफ बढ़ते हुये देखता रहा। वो आज अपने चेहरे के भावों के माध्यम से उस से कल की गुस्ताखी के लिए क्षमा मांगना चाहता था। लड़की दरवाजे मे घुसी और पलटकर दरवाजा बंद करते हुये एक नजर भानु की खिड़की की तरफ देखा। नजरों मे वही अजनबी बर्ताव जो पहली मुलाक़ात मे था। भानु उसके इस तरह अचानक देखने से सकपका गया और उसकी पूर्व नियोजित योजना धरी की धरी रह गई। लड़की को जैसे पूर्वाभास हो गया था की भानु उसे देख रहा है। नजरे मिली ! भानु की धड़कने अपनी लय ताल भूल गई थी । वह सन्न रह गया था,उसने सोचा भी नहीं था को वो अचानक उसकी तरफ देखेगी। सिर्फ दो पल ! और फिर लड़की ने निर्विकार  भाव से  दरवाजा बंद कर दिया। भानु की नजरे उसका पीछा करते करते बंद होते दरवाजे पे जाकर चिपक गई। अंत मे उसने चैन की एक ठंडी सांस ली और वापिस कमरे मे आकर धड़कते दिल को काबू मे करने की कोशिश करने लगा। इन दो  हादसों ने उसके युवा दिल मे काफी उथल-पुथल मचा दी थी। उसके दिमाग  मे अनेकों सवाल उठ रहे थे और उसका दिल उनका जवाब भी  दे रहा था मगर सिलसिला अंतहीन था।  एक नया एहसास उसे अजीब से रोमांच की अनुभूति से सरोबर किए जा रहा था।  भानु को अजीब सी कशमकश महसूस हो रही थी। बावजूद इसके बढ़ती हुई बैचेनी भी उसके दिल को सुकून पहुंचाने मे सहायक सिद्ध हो रही थी। ये सब अच्छा भी लग रहा था। दिमाग मे विचारों की बाढ़ सी आ गई थी। कभी गंभीर तो कभी मुस्कराते भावों वाले विचार मंथन की चरम सीमा को छु रहे थे।  खुद के विचार खुद से ही आपस मे उलझ कर लड़ते झगड़ते रहे। दिवाने अक्सर ऐसे दौर से गुजरते हैं। खुद से बातें करते और उमंगों के हिचकोले खाते कब उसकी आँख लग गई पता ही नहीं चला।

अगली सुबह जल्दी जल्दी नाश्ता खतम कर वो चाय का कप हाथ मे ले अपने चिरपरिचित स्थान पे खड़ा हो गया। एक दो बार उड़ती सी नजर उस दरवाजे पे डालता हुआ चाय की चुसकियों के बीच आस-पास के माहौल का जायजा लेने लगा।  लड़की के चेहरे के कल के भाव संतोषजनक थे। वो सायद अब गुस्सा नहीं है , या हो सकता है ये तूफान से पहले की खामोशी हो। इस कशमकश में उसकी उलझने और बढ़ती जा रही थी और साथ ही इंतजार की इंतहा मे उसकी मनोदशा भी कोई खास अच्छी नहीं कही जा सकती थी।  अचानक दरवाजा खुला! लड़की ने झट से ऊपर देखा..., नजरें मिली..., भानु स्तब्ध रह गया! एक पल को जैसे सब कुछ थम सा गया। मगर दूसरे ही पल लड़की ने बाहर से दरवाजा बंद किया और सीने से किताबें चिपकाए सड़क पे गर्दन झुकाये हुये एक और जाते हुये दूर निकल गई । भानु देर तक उसे जाते हुये देखता रहा । भानु उसके ऐसे अचानक देखने से थोड़ा सहम गया रहा था मगर दिल उसके डर पे हावी हो रहा था। पिछले दो चार दिनों मे उसने जितने भी अनुभव किए उनका एहसास उसके लिए बिलकुल नया था। वो चली गई मगर भानु के लिए न सुलझा सकने वाली पहेली छोड़ गई जिसे वो सुलझाने मे लगा था।  

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   (  विक्रम  सुरतगढ़  रंजना  )

खामोश लम्हे..4


दोपहर अपने कॉलेज के लिए जाते हुये पूरे रास्ते वो उसी के बारे मे सोचता रहा । कॉलेज पहुँचकर भी उसका मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था । जैसे तैसे कॉलेज खतम हुआ और उसको तो जैसे पंख लग गए। जल्दी से अपने क्वार्टर मे पहुंचा और खिड़की से बाहर झाँककर उसकी मोजूदगी पता की। मगर निराशा ही हाथ लगी । दरवाजा बंद था । एक के बाद एक कई चक्कर लगाने के बाद भी जब दरवाजे पे कोई हलचल नई हुई तो भानु भारी मन से कमरे मेँ जाकर लेट गया ।    
लेकिन उसका दिल तो कहीं और था , बैचेनी से करवटें बदलता रहा, और अंत मे खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। पूरे मकान मे वही एक जगह थी जहां उसकी बैचेनी का हल छुपा था। वहाँ खड़े होकर उसे भूख प्यास तक का एहसास नहीं होता था। अंधा चाहे दो आंखे। फिर आखिरकार दीदार की घड़ी आ ही गई। दरवाजा खुला... भानु संभला.....  और दरवाजे की तरफ उड़ती सी नजर डालकर पता करने की कोशिश करने लगा को कौन है। मुराद पूरी हुई। लड़की हाथ मे बाल्टी थामे बाहर आई ... और सीधी दाईं और टीन के शैड मे बंधी  गाय का दूध निकालने लगी । भानु आस पास के मकानों की खिड़कियों पे सरसरी सी नजर डालकर कनखियों से उस लड़की को भी देखे जा रहा था। भानु को उसे देखने की ललक सी लग गई थी, जब तक उसको देख नहीं लेता उसे कुछ खाली खाली सा लगने लगता। सायद प्यार की कोंपले फूटने लगी थी। लड़की अपनी पूरी तल्लीनता से अपने काम मे मग्न थी। कुछ समय पश्चात लड़की उठी... घूमी... और दूध की बाल्टी को दोनों हाथो से दोनों घुटनो पे  टिका झट से ऊपर  भानु की तरफ शिकायत भरे लहजे मे ऐसे देखने लगी जैसे कह रही दिनभर घूरने की सिवा कोई काम नहीं क्या?”। भानु झेंप गया, और दूसरी तरफ देखने लगा। लड़की उस झोपड़ी में अंदर की तरफ ऐसे खड़ी थी की वहाँ से उसे भानु के सिवा कोई और नहीं देख सकता था, मगर भानु जहां खड़ा था वो जगह उतनी सुरक्षित नहीं थी की बिना किसी की नजरों मे आए उसे निश्चिंत होकर निहार सके। मगर फिर भी वो पूरी सावधानी के साथ उसकी तरफ देख लेता था, जहां वो लड़की उसे अपलक घूरे जा रही थी , जैसे कुछ निर्णय ले रही हो। उसके चेहरे के भावों से लग रह था जैसे कहना चाहती हो की मेरा पीछा छोड़ दो। आखिरकार भानु ने हिम्मत करके उसकी तरफ देखा .... देखता रहा..... बिना पलकें झपकाए ...... उसकी आंखो मे देखने के बाद वो दीन-दुनिया को भूलने लगा। अब उसे किसी के देखे जाने का बिलकुल डर नहीं था। लड़की अभी तक उसी अंदाज मे, बिना कोई भाव बदले भानु को घूर रही थी । करीब पाँच मिनिट के इस रुके हुये वक़्त को तब झटका सा लगा जब लड़की ने फिर से मुह बिचकाया और अपने दरवाजे की तरफ बढ़ गई । भानु घबराया हुआ उसको जाते देखता रहा और फिर लड़की ने बिना घूमे दरवाजा बंद कर दिया। भानु को उम्मीद थी की वो अंदर जाते वक़्त एक बार जरूर पलट कर देखेगी। दीवाने अक्सर ऐसी उम्मीदों के पुल बांध लेते हैं और फिर उनके टूटने पर आँसू बहाने लगते हैं। मगर वो ऐसे बांध बनाने और फिर उसके टूटने में भी एक रूहानी एहसास तलाश ही लेते हैं।
कुछ दिनों सिलसिला यूं ही चलता रहा। भानु उहापोह मे फंसा हुआ था। भानु बाथरूम की खिड़की के टूटे हुये काँच से बने छेद से आँख सटाकर ये पता करता की मेरे खिड़की पे न होनेपर भी क्या वो उसके खड़े होने की जगह की तरफ देखती है ? भानु की सोच सही निकली । वो लड़की अक्सर उड़ती सी नजर उस खिड़की पर  डालती और भानु को वहाँ न पाकर दूसरी और देखने लगती। ये सिलसिला बार बार दोहराया जाता। मगर वो छुपे हुये भानु को नहीं देख पाती थी। भानु उसकी इस हरकत पे मुस्कराये बिना न रहा , अब उसे यकीन हो गया की वो अकेला ही बैचेन नहीं है , हालात उस तरफ भी बैचेनी भरे है।  अब भानु पहले बाथरूम के होल से देखता की वो दरवाजे मे खड़ी है या नहीं, अगर वो खड़ी होती तो वह भी किसी बहाने जाकर सामने खड़ा हो जाता । कुछ देर इधर उधर देखने का नाटक  करते हुये वो एक आध निगाह दरवाजे पर भी डाल लेता, जहां वो लड़की भी उसी का अनुसरण कर रही होती थी । चारों तरफ से आश्वस्त होने के बाद भानु ने नजरे लड़की के चेहरे पे टीका दी । लड़की अनवरत उसे ही देखे जा रही थी । भावशून्य..किसी नतीजे के इंतजार मे ..... दोनो सायद मजबूर हो गए थे। दिल और दिमाग की रस्साकसी में दिल का पलड़ा निरंतर भरी होता जा रहा था। बेबस। दो युवा अपनी जवाँ उमगों के भंवर मे बहे जा रहे थे। अचानक लड़की की हल्की सी मुस्कराई... जैसे उसने हथियार डाल दिये हों और कह रही हो तुम जीते और में हारी। भानु की तंद्रा टूटी। वो अपने आप को संभालता हुआ उसकी मुस्कराहट का जवाब तलाश ही रहा था की, लड़की पलटी और जाते जाते एक और मुस्कराहट से भानु को दुविधा में डाल गई।  दरवाजा अब भी खुला हुआ था। भानु के पूरे शरीर मे रोमांच की लहरें सी उठने लगी , जीवन के पहले इजहार-ए-इश्क का एहसास उसके दिल में हिचकोले मार रहा था । वो अपने कमरे मे आया और एक ठंडी लंबी सांस खींचकर ऐसे बिस्तर पर लेट गया जैसे कोई योद्धा रणभूमि से विजयश्री पाकर लौटा हो। वो लेटे लेटे छत की तरफ देखकर मुस्कराने लगा । आज उसे अपने आस पास का माहौल कुछ ज्यादा ही बदला बदला सा लग रहा था । एक अजीब सा संगीत उसे अपने चारों और सुनाई दे रहा था। प्यार का खुमार उसके चेहरे पे साफ झलक रहा था।
 
दो दिलों मे एक मूक सहमती बन गई थी।  अब दोनों अक्सर ऐसे ही एक दूसरे को पलों ताकते रहते। हल्की मुस्कराहटें और कुछ छुपे हुये इशारे ही इनकी भाषा थे। दोनों दुनियाँ से छिप छिपाकर, दिन मे कम से कम एक दो बार तो अवश्य ही आंखो ही आँखों मे इजहार-ए-मोहब्बत कर लेते। दोनों एक दूसरे को जब तक देख नहीं लेते तब तक बढ़ी हुई आतुरता दिल मे लिए इधर उधर घूमते रहते। बस कुछ पलों का  कुछ अंजान सा मोह उन दोनों के दरम्यान पनपने लगा था , सायद उसे ही प्रेम या प्यार का नाम देते हैं। प्यार होने की कोई ठोस वजह नहीं होती और ना  ही वक़्त निर्धारण होता है। ये कहना भी मुश्किल है की कब और कोनसे पल हुआ ,क्योंकि प्यार मे वक़्त गवाह नहीं होता। अंतहीन सिलसिलों और मन के पल पल बदलते भावों से प्यार का अवतरण होता है। 
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खामोश लम्हे..5


कभी कभार दरवाजा देर तक न खुलने से परेशान भानु अपना दरवाजा खोलकर सीढ़ियों मे  खड़ा हो जाता । अपने पड़ोसी परिवार से उसके सम्बंध अच्छे हो रहे थे। परिवार के मुखिया का नाम शिवचरण था जो उत्तरपरदेश का रहने वाला था । उसके परिवार मे दो बेटे और दो बेटियाँ थी । दोनों बड़े बेटे अपना कोई छोटा मोटा काम-धंधा करते थे और बड़ी बेटी दुर्गा घर मे माँ के कम मे हाथ बटाती थी जबकि छोटी लड़की सरोज स्कूल में पढ़ती थी । संयोगवश दुर्गा की माँ और भानु का गोत्र एक ही था एसलिए दुर्गा की माँ भानु को भाई जैसा मानती थी मगर दुर्गा अपने हमउम्र भानु को मामा का सम्बोधन नहीं देती थी । अचानक दुर्गा बाहर आई और छत की तरफ जाने वाली सीढ़ियों पे खड़ी ही गई । भानु ठीक उसके उसके सामने नीचे की तरफ जाने वाली सीढ़ियों मे खड़ा सामने दूर दूर तक फैले रेलवे पटरियों के जाल को देख रहा था ।

 आज आप कॉलेज नहीं गए” , दुर्गा ने धीरे से पूछा ।

नहीं, आज छुट्टी है ।

खाना बना लिया ?” , दुर्गा ने थोड़ी देर रुककर फिर सवाल किया।

हाँखा भी लिया।

 दोनों कुछ समय चुपचाप खड़े रहे। दुर्गा के हाथों मे कुछ गीले कपड़े थे , उनको वो सायद छत पे सुखाने ले जा रही थी।  भानु सीढ़ियों में खड़ा झरोखेदार दीवार से सामने सड़क पर खेलते बच्चों को देख रहा था। दुर्गा भी कभी भानु तो कभी सामने के बच्चों को देख रही थी। वो बात आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक नजर आ रही थी।   

 
उसका नाम रंजना है”, अचानक दुर्गा ने कहा , और भानु के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करने लगी ।

किसका ?” , भानु ने लापरवाही से बिना दुर्गा की तरफ देखते हुये पूछा ।

 
वही.... जो पीछे बीब्लॉक मे नीचे वाले क्वार्टर मे रहती है”, दुर्गा ने भानु की आखों मे झाँकते हुये कहा।

 
क...कौन...”, भानु चौंकां और पलटकर कर दुर्गा की तरफ देखने लगा।
वो जिनके एक गाय भी है”, दुर्गा ने बात पूरी की और भानु की आंखो मे देखने लगी।

 
भानु उसका जवाब सुनकर सकपका गया, और हकलाते हुये बोला ,”म...मुझे तो नहीं पता, क...कौन रंजना ?, में.....में तो नहीं जानता। लेकिन मन ही मन वो रंजनाके बारे मे जानने की जिज्ञासा पाले हुये था मगर संकोचवश कुछ पूछ न सका।

 
वो आपकी तरफ देखती रहती है ना ?, दुर्गा ने प्रश्नवाचक निगाहों से भानु की तरफ देखा, ”मैंने देखा है उसको ऐसा करते”, दुर्गा ने कुछ देर रुककर कहा।

 
भानु की जुबान तालु से चिपक गई ।

 
वो बस स्टैंड के पास जो महिला कॉलेज है उसमे पढ़ती है, उसके पापा रेलवे में हैं। ये लोग पंजाबी है। दुर्गा ने सिलसिलेवार सूचना से अवगत कराते हुये बात खत्म  की और प्रतिक्रिया के लिए भानु का चेहरा ताकने लगी।

 अच्छा”, भानु ने ऐसे कहा जैसे उसे इसमे कोई खास दिलचस्पी नहीं है। मगर दुर्गा उसके चेहरे के बदलते भावों को भाप गई थी, वो भानु को सतबद्ध करके चली गई।    

 दुर्गा के इस रहस्योद्घाटन से भानु के चेहरे पे पसीने की बुँदे छलक आई थी। उसको लगा जैसे पूरी कॉलोनी को ये बात पता चल गई है और अब सभी उसकी तरफ  देख उसपे हंस रहे हैं ।

दुर्गा और भानु के क्वार्टर साथ साथ थे , उनके मुख्य द्वार एक दूसरे के आमने सामने थे। अंदर से सभी मकान एक ही डिजाईन से बने हुये थे। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ कॉमन थी।  दुर्गा ने अपने पीछे वाली खिड़की से रंजना को भानु के क्वार्टर की तरफ देखते हुये देख लिया था।

 
ऊपर से माँ की आवाज सुन दुर्गा जल्दी छत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी और उसके पीछे भानु लूटा पीटा सा अपने दरवाजे  की तरफ बढ़ गया । उसने सपने में भी नहीं सोचा था की, किसी को उनके बारे मे जरा सा भी इल्म होगा । एक भय सा लग रहा था की , कहीं उस लड़की के परिवार के किसी सदस्य को पता चल गया तो कितना हँगामा होगा ।

जब कभी खाना बनाने का मूड नही होता था तो भानु शाम को अक्सर बाहर पास के किसी होटल में खाने के लिए चला जाता था । आज वैसे भी दुर्गा ने उसको  अजीब उलझन में डाल दिया था । खाना खाने के बाद वो इसी चिंता में खोया हुआ वापिस अपने मकान मे आ रहा था । कॉलोनी में दाखिल होने के बाद वो अपने अपार्टमेंट के सामने वाली सड़क से गुजर रहा था की सामने से आती रंजनाको देख चौंक पड़ा । दोनों ने एक दूसरे को देखा। निगाहें टकराई। शरीर मे एक  मीठी-सी सिहरन दौड़ने लगी। निस्तब्ध ! नि:शब्द ! दो दिलों में अचानक धडकनों का एक ज्वार ठाठे मारने  लगा । उद्वेलित नजरें मिली और उलझकर रह गई । एक दूसरे के बगल से गुजरते हुये एक दूसरे के दिल की धडकनों को साफ महसूस कर रहे थे। जुबान अपना कोई हुनर नहीं दिखा पाई।  सब कुछ इतना जल्दी हो गया की जब दोनों संभले तो दूर जा चुके थे।
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खामोश लम्हे...6

रात मे भानु भविष्य के सपने बुनते बुनते सो गया। वो रातभर उसके ख्यालों मे खोया रहा। रंजना को लेकर उसने बहुत से ख्वाब बुन लिए थे। वह रंजना को लेकर एक कशिश सी महसूस करने लगता। रंजना का चेहरा हर वक़्त उसे अपने इर्द-गिर्द घूमता हुआ सा महसूस होता था।
 सुबह दरवाजे पर होने वाली दस्तक ने उठा दिया। देखा। उसने दरवाजा खोला तो सामने दुर्गा को खड़े पाया। ऊपर छत पे जाने वाली सीढ़ियों पे दुर्गा खड़ी थी। उसने इशारे से भानु को अपने पास बुलाया। भानु नीचे जाने वाली सीढ़ियों मे जाकर खड़ा हो गया। और प्रश्नवाचक निगाहों से दुर्गा की तरफ देखने लगा।
 रंजना ने लैटर मांगा है”, दुर्गा ने धीरे से फुसफुसाते हुये कहा।
ऊं भानु को जैसे किसी ने नंगा होने के लिए कह दिया हो।
किसने ?” , चौंक कर विस्मय से दुर्गा की तरफ देखा ।
 
उसी ने दुर्गा ने मुस्कराते हुये गर्दन से रंजनाके घर की तरफ इशारा करके कहा।
भानु के पास कहने को शब्द नहीं थे। खिसियाकर गर्दन नीचे झुकाली।
मुझे दे देना मे उसको दे दूँगी
“.....”
किसी के कदमों के आहट से दुर्गा घर के अंदर चली गई ,भानु भी अपने कमरे मे आ गया। वो सबसे ज्यादा वक़्त रसोई और कमरे के बीच आने जाने मे ही गुजारता था,क्योंकि इसी आने जाने के दरम्यान वो एक उड़ती सी नजर उसके घर के दरवाजे पे भी डाल देता था। चितचोर के मिलने पर वो खिड़की पे आ जाता, और फिर दोनों लोगों की नजरों से नजरें बचाकर नजरें मिला लेते। रंजना की तरफ से अब प्यार का मूक आमंत्रण मिलने लगा था। चिढ़ाने और गुस्सा करने की जगह पर अब हल्की मुस्कान ने डेरा जमा लिया था। उसके बाद तो ये दो दीवाने आँखों ही आंखो मे एक दूसरे के हो गए थे, बहुत से सपने पाल लिए जो बीतते वक़्त के साथ जवां होते गए।  
 
भानु का दिल करता था की रंजना से ढेर सारी बाते करे मगर उसका शर्मिला और संकोची स्वभाव उसके आड़े आ जाता था। एक दिन उसने हिम्मत करके खत लिखने की सोची। उसे ये भी डर था की कहीं वो खत किसी के हाथ ना लग जाए। लेकिन प्यार पे भला किसका ज़ोर चलता है। वो लिखने बैठ गया। बिना किसी सम्बोधन एक छोटी प्रेम-कविता लिख दी । अंत मे अपना नाम तक नहीं लिखा। दूसरे दिन चुपके से दुर्गा को दे दिया। काफी दिन बीत जाने पर मौका पाकर भानु ने दुर्गा को रंजना से भी पत्र लाने को कहा। दुर्गा ने उसे भरोसा दिलाया की वो रंजना से भी पत्र लाकर देगी । दिन बीतते गए मगर रंजना का पत्र नहीं मिला। दुर्गा का एक ही जवाब मिलता की ,”वो लिखने को कह रही थी। वक्त बीतता गया और दोनों अपने प्रेम को परवान चढ़ाते रहे। सिर्फ आँखों मे ही कसमें वादों की रश्म अदायगी होती रही। कभी सामना होने पर दोनों अंजान बन जाते और धड़कते दिलों को संभालने में ही वक़्त निकल जाता। दोनों बहुत कुछ कहना चाहते मगर दिल की धड़कने जुबान का गला दबा देती।
 भानु नहाने के बाद बनियान और हाफ-पैंट पहले अपने लिए नाश्ता बना रहा था। दरवाजे पे हल्की ठक ठक की आवाज सुन भानु ने दरवाजा खोला तो सामने दुर्गा और रंजना को देख चौंक पड़ा। धड़कने बढ़ गई। दिल मचलकर हलक मे आ फँसा।
आंखे झपकाना तक भूल गया और जिस चेहरे को देखे बिना उतावला सा रहता था वो इस वक़्त उसके सामने था। वो ही बड़ी बड़ी आंखेँ इस वक़्त मात्र एक कदम दूर से उसे देख रही थी जो आज से पहले करीब तीस से चालीस कदम दूर होती थी। दोनों इस वक्त एक दूसरे की आँखों मे डूब दिल के दरीचों तक पहुँचने का  जुगाड़ लगा रहे थे। रंजना ठीक दरवाजे के सामने और दुर्गा उसके पीछे सीढ़ियों मे खड़ी थी। भानु सामने खड़ी रंजना की गरम साँसो को अपने चेहरे पे अनुभव कर रहा था। भानु खत के इंतजार मे डूबा भानु आज रंजना को सामने पाकर बुत बन गया था। दोनों तरफ गहन खामोश मगर दिलों के तार झंकृत हो उठे। परिस्थितियां अनुकूल थी मगर दिल बेकाबू हुआ जा रहा था, जिससे आत्मविश्वास की डोर लगातार हाथ से छूट रही थी। अक्सर ख़यालों मे डींगे हाँकने वाली जुबान तालु से जाकर चिपक गई थी। भानु की वो सारी योजनाएँ पलायन कर चुकी थी जो उसने ख़यालों के परिसर मे बैठकर बनाई थी, की जब कभी सामना होगा तो वो ये कहेगी और प्रत्युतर में ऐसा कहुगा...आदि इत्यादि।  रंजना भानु की उन आंखो को देख रही थी जो उसे परेशान किए हुये थी। रंजना की नजरे कभी भानु के चेहरे तो कभी भानु के बाएँ बाजू पे बने उगते सूरज के उस बड़े से टैटू को देख रही थी जिसके बीचों बीच भानुलिखा था। दोनों सहेलियाँ आज सज धज कर कहीं जाने की तैयारी मे थी।  रंजना के हाथो मे पूजा-सामग्री रखी हुई एक थाली और दुर्गा पानी  का कलश लिए हुये थी।
 
काफी देर दुर्गा उन दोनों को देखती रही मगर जब देखा की कोई कुछ बोल नहीं रहा तो उसने रंजना के कंधे पे हाथ रखकर भानु की तरफ देखते हुए कहा।     
 
अब बात करलो दोनों”, दुर्गा ने जैसे अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुये कहा।
 
“...ब...बात...! क्या बात”, भानु ने शरमाते हुये कहा और अपने आपको संभालने लगा।
 
रंजना खामोश मगर बिना पलक झपकाए उसे देखे जा रही थी, जिसने उसकी रातों की नींद उड़ा दी थी। दोनों आज आमने सामने खड़े होकर भी वही आँखों की भाषा ही बोल रहे थे। दोनों अपने को उसी भाषा मे सहज महसूस कर रहे थे। उन्हे जुबां पे भरोसा नहीं था।  दुर्गा एक दूसरे को देखे जा रही थी।
 आज कहीं जा रहे हो”, भानु ने रंजना के बजाय दुर्गा से पूछा।
 रंजना अभी भी भानु के चेहरे और उसके नाम के अनुरूप उसके बाजू पे गुदे सूरज के बीच मे लिखे भानुको देखे रही थी।
 
हाँ, आज रामनवमी है, इसलिए सभी मंदिर जा रही हैंबाकी लोग नीचे हमारा इंतजार कर रहे हैं। आप लोगों को जो बातें करनी है जल्दी जल्दी करलों नहीं तो कोई आ जाएगा।“, दुर्गा ने जल्दी जल्दी फुसफुसाकर कहा।
 
मगर तभी किसी ने नीचे से दुर्गा को पुकारा तो वो घबराकर रंजना का हाथ पकड़ नीचे जाने लगी। बूत बनी रंजना अभी भी बार बार पीछे मुड़कर भानु को देख रही थी। उनके जाने के बाद भानु देर तक उन्हे देखता रहा। वो आज भी कुछ नहीं बोल पाया।
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( Ranjna Suratgarh Vikram )

खामोश लम्हे...7


वक़्त बीतता गया। क्वार्टर के आवंटन  की अवधि खत्म होने पर भानु को दूसरा मकान खोजना पड़ा। जिस रास्ते से भानु कॉलेज जाता था उसी रास्ते मे एक मकान मिल गया। सयोंग से रंजना भी उसी रास्ते से कॉलेज जाती थी। रंजना और भानु दोनों के कॉलेज एक ही रास्ते पर थे, मगर समय अलग अलग था। भानु जब कॉलेज जा रहा होता तो उसी दरमियाँ रंजना भी उसी रास्ते से अपनी कुछ सहेलियों के साथ कॉलेज से वापिस आ रही होती। दोनों चोर नजरों से एक दूसरे की आंखो में देखते और पास से गुजर जाते। रंजना चाहती थी की भानु कुछ कहे और उधर भानु भी कुछ ऐसी ही उम्मीद पाले बैठा था। सहेलिया साथ होने के कारण रंजना भाऊ की तरफ देख नहीं सकती थी मगर प्यार करने वाले राहें निकाल लेते हैं। पास से गुजरते वक़्त रंजना सहेलियों से नजरें बचाकर, बिना पीछे मुड़े अपने हाथ को पीछे करके भानु को बाय बाय कह देती। भानु उसके इस इशारे को पाकर प्रफुल्लित हो जाता। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती बस अहसास होता है। ये दोनों भी उसी अहसास से सरोबर थे।

वक़्त अपनी रफ्तार से गुजर रहा था और उधर दो प्रेमी चुपचाप वक़्त के सिने पे अपनी प्रेम कहानी लिखे जा रहे थे। दोनों के परीक्षाएँ  आरंभ हो चुकी थी। समय-सारिणी अलग अलग होने से मुलाकातें भी बाधित हो गई। भानु सो रहा होता उस वक़्त रंजना कॉलेज के लिए जा रही होती। भानु के मकान का दरवाजा बंद देख रंजना मायूसी से सहेलियों के साथ आगे बढ़ जाती। दोनों को पता ही नहीं था की कौन किस वक़्त आता जाता है।

 
एक दिन भानु ने जल्दी उठकर दरवाजा खुला छोड़ दिया और खुद अंदर की तरफ दरवाजे के सामने चारपाई पे लेट गया। आज वो देखना चाहता था की रंजना किस वक्त कॉलेज जाती है। प्रियतमा के इन्तजार में बिछी पलकों को न जाने कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया। मगर जब दिल में चाहत का समुन्दर ठांठे मर रहा हो तो इन्तजार करती आँखों को रोक पाना मुश्किल होता है।

अचानक नींद से चौंककर उठे भानु की नजर खुले दरवाजे पे पड़ी और तभी रंजना सामने से मुस्कराती हुई निकल गई। भानु के कानों में घंटियाँ सी बचने लगी, एक नई स्फूर्ति के साथ वो बिस्तर से उठा और झट से दरवाजे के पास पहुंचा। रंजना आगे नकल गई थी। आज वो अकेली थी। कुछ दूर जाकर रंजना ने पीछे मुड़कर देखा तो भानु को दरवाजे के बिच में खड़ा देख मुस्कराकर हाथ हिलाया और आगे बढ़ गई।

 
मुद्दद से बंजर पड़ी जमीन पे बरसात की बूंदों सा अहसास लिए भानु ने मुस्कराकर रंजना की मुस्कराहट का जवाब दिया।

आज भानु का आखिरी पेपर था इसलिए वो आज रंजना से आमने सामने बात करके ही रहेगा. उसने निर्णय कर लिया था की जैसे ही दोपहर ढले रंजना कॉलेज से वापिस आएगी वो कुछ कहने की शुरुआत करेगा. आखिर कब तक ऐसे ही चलता रहेगा. आज का दिन भानु को कुछ ज्यादा ही लंबा महसूस हो रह आता. उसका दिल भी इस निर्णय के बाद कुछ ज्याद ही धडकने लगा था. उसने नोर्मल होने की बहुत कोशिश की मगर दिल कुलांचे मारने से बाज नहीं आया. ज्यों ज्यों मिलन की बेला पास आ रही थी उसकी रफ़्तार जोर पकड़ रही थी. आज सालभर का मूक प्यार जुबान पाने वाला था.

अचानक भानु को अपने सपने टूटते हुए से महसूस हुए. रंजना के साथ आज फिर उसकी दो सहेलियाँ थी, और वो जानता था वो और रंजना, इन सबके होते हुए कुछ नहीं बोल पाएंगे. दिल में उठा ज्वार दम तोड़ने लगा था. मगर प्यार भी उफनते हुए जल प्रपात की भांति रास्ता निकाल ही लेता है. भानु जानता था की रंजना की दोनों सहेलियाँ अगले मोड़ से दूसरी तरफ चली जायेगी और उसके आगे  रंजना अकेली रहेगी. भानु से अपनी साईकिल निकाली और जल्दी से पीछे वाली सड़क से लंबा चक्कर लगाकर उस सड़क पर पहुँच गया जिस पर रंजना जा रही थी . उसने सामने से आती रंजना को देखा ! दिल अपनी रफ़्तार बद्द्स्तुर बढ़ाये जा रहा था. भानु का दिल और दिमाग दोनों आज बगावत पर उतर आये थे. भानु आज उन पर काबू नहीं कर पा रहा था. फासला निरंतर कम होता जा रहा था. रंजना ने देख लिया था की भानु सामने से आ रहा है. वो साईकिल पर था. निरंतर कम होते फासले ने दोनों दिलों की धडकनों में भूचाल सा दिया था. अचानक भानु की नजर दुर्गा के भाई पर पड़ी जो सामने से आ रहा था. भानु का मस्तिष्क झनझनाकर गया था. भानु नहीं चाहता था की दुर्गा के भाई को उनके प्यार का पता चले और फिर इस तरह बात पूरी कॉलोनी में फ़ैल जाये. लेकिन आज उसने फैसला कर लिया था की रंजना से मुखातिब होकर रहेगा. फासला और कम हो गया था. अब वो रंजना को साफ साफ देख सकता था. वो मात्र २० कदम की दुरी पर थी. बहुत कम मौके मिले उन दोनों को ये फासले कम करने के मगर कभी बात नहीं हो पाई. आज वो दोनों अपना संकोच तोड़ देना चाहते थे। दोनों अपना हाल-ए-दिल कह देना चाहते थे। 
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खामोश लम्हे..1

  एक इंसान जिसने   नैतिकता की   झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर  उस संताप   को   गले मे डाल...