एक इंसान जिसने नैतिकता की झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर उस संताप को गले मे डाले, रिस्तों का फर्ज निभाता चला गया । कभी
माँ-बाप का वात्सल्य, कभी पत्नी का प्यार तो कभी
बच्चो की ममता
उसके पैरों मे बेड़ियाँ बने रहे। मगर
इन सबके बावजूद वो
उसे कभी ना भुला
सका जो उसके दिल के किसी कोने मे सिसक रही थी।
वक़्त उसकी झोली
मे वियोग की
तड़प
भरता
रहा……
“कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में”
- मुन्नवर राणा
( मैंने अपना ये लघु उपन्यास मशहूर शायर मुन्नवर राणा साहब के इस शे’र से प्रभावित होकर लिखा है । जहां एक इंसान अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहण करते करते अपने पहले प्यार को अतीत की गहराइयों मे विलीन होते देखता रहा। मगर उम्र के ढलती सांझ मेन जाकर जब जिम्मेदारियों से हल्की सी निजात मिली तो दौड़ पड़ा उसे अतीत के अंधकूप से बाहर निकालने को....
“विक्रम”
(WebSite: www.guglwa.com)
रात अपने पूरे यौवन पर थी। त्रिवेणी एक्सप्रेस अपने गंतव्य को छूने सरपट दौड़ रही थी। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ पे गहरी नींद मे सोये हुये थे मगर एक अधेड़ उम्र शख्स की आंखो मे नींद का नामोनिशान तक नहीं था। चेहरे पर उम्र ने अपने निशान बना दिये थे। जीवन मे लगभग पचपन से ज्यादा बसंत देख चुका निढाल सा अपनी बर्थ पे बैठा ट्रेन की खिड़की से बाहर फैली चाँदनी रात को देख रहा था। जहां दूर दूर तक फैला सन्नाटा इंजन के शोर से तिलमिला कर कुलबुला रहा था। आसमान मे चाँद तारे अपनी हल्की थपकियों से अल्हड़ चाँदनी को लोरियाँ दे रहे थे, जो अंधेरे को अपने आगोश मे ले बेपरवाह सी लेटी हुई थी। कभी-कभी कहीं दूर किसी बिजली के बल्ब की हल्की रोशनी पेड़ों के झुरमुटों से नजर आती थी। उसकी आंखे दूर तक फैली चाँदनी के उस पार अपने अतीत को तलाश रही थी जो वक़्त के लंबे अंतराल मे कहीं दफ़न हो चुका था। वह बार बार अतीत के उन आधे अधूरे दृश्यों को जोड़कर एक सिलसिलेवार श्रींखला बनाने की कोशिश करता मगर वक़्त के बहुत से हिस्से अपना वजूद खो चुके थे। इसी उधेड़बुन मेँ न जाने कब उसके थक चुके मस्तिष्क को नींद ने अपने आगोश मे ले बाहर पसरी चाँदनी से प्रतिस्पर्धा शुरू करदी। ट्रेन लोगों को उनकी मंजिल तक पहुँचाने के लिए बेरहमी से पटरियों का सीना रोंदती बेतहाशा भाग रही थी।
भानु चाय की चुसकियों के बीच जिज्ञासावश आस पास के नजारे देखने लगा। चाय खतम
करने के बाद वो वहीं खड़ा रहा और सोचता रहा की कितना फर्क है गाँव और शहर की जीवन
शैली में। गाँव मे हम हर एक इंसान को भलीभाँति जानते है, हर एक घर मे आना जाना रहता है। अपने घर से ज्यादा वक़्त तो
गाँव मे घूमकर और गाँव के अन्य घरों मे गुजरता है। बहुत अपनापन है गाँव मे। इधर हर
कोई अपने आप मे जी रहा है। यहाँ सब पक्षियों के भांति अपने अपने घोंसलों मे पड़े
रहते हैं। किसी को किसी के सुख-दुख से कोई सरोकार नही। सामने के अपार्टमेंट मे बने
मकानों की खुली खिड़कीयों और बालकोनी से घर मे रहने वाले लोग इधर उधर घुमते नजर आ
रहे थे। अचानक भानु को अहसास हुआ की कोई बार बार उसकी तरफ देख रहा है, उसने इसे अपना भ्रम समझा और सिर को झटक कर दूसरी तरफ देखने लगा। थोड़े
अंतराल के बाद उसका शक यकीन में बदल गया की दो आंखे अक्सर उसे रह रह कर देख रही
हैं। उसने दो चार बार उड़ती सी नजर डालकर अपने विश्वास को मजबूत किया।
Continue...2 Next
------ Search Word Help
( 1985, CD BURN, FACEBOOK, RANJANA, RANJNA, VIKRAM, WINDOWS 8 , DURGA , SURATGARH , DURGA , GUGLWA , GUGALWA, SADULPUR , CHURU , RAJASTHAN PATRIKA )
( 1985, CD BURN, FACEBOOK, RANJANA, RANJNA, VIKRAM, WINDOWS 8 , DURGA , SURATGARH , DURGA , GUGLWA , GUGALWA, SADULPUR , CHURU , RAJASTHAN PATRIKA )